काअ़बा में जा रहा तो न दो ताना
भूला हूं हक़क़-ए-सुहबत-ए-अहल-ए-कुनिशत को

ताअत में ता रहे न मै-ओ-अनगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बिहिशत को

हूं मुनहरिफ़ न कयूं रह-ओ-रसम-ए-सवाब से
टेढ़ा लगा है क़त क़लम-ए-सर-नविश्त को

ग़ालिब कुछ अपनी सय से लहना नहीं मुझे
ख़िरमन जले अगर न मलख़ खाए किशत को

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