दोनों जहां दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
यां आ पड़ी ये शर्म की तकरार क्या करें

थक-थक के हर मुक़ाम पे दो चार रह गये
तेरा पता न पायें, तो नाचार[1] क्या करें

क्या शम्अ़ के नहीं है हवाख़्वाह[2] अहल-ए-बज़्म[3]
हो ग़म ही जांगुदाज़[4] तो ग़मख़्वार क्या करें

शब्दार्थ:
  1. जिनका बस ना चले
  2. शुभचिंतक
  3. महफिल वाले
  4. जान घुलाने वाला
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